- आखिर हम बोट किसे दें ?
नेता जी के जीत हार के समीकरण में उलझा सिरमौर की जनता का सामान्य ज्ञान
- आखिर हम बोट किसे दें ?
हमें हर पांच वर्ष में अपना नेता चुनने का अवसर मिलता है, जिसमे हम अपनी वैधानिक सहमति या वैचारिक समर्थन अपने पसंदीदा प्रत्याशी को प्रदान करते हैं।
Editorial by ᎪᏟᎻᎪᎡᎽᎪ ᎪՏᎻᎬᎬՏᎻ ᎷᏆՏᎻᎡᎪ
चुनाव में अनगिनत प्रत्याशी हो सकतें हैं इनकी संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। दरअसल जब हम अपना बोट देते हैं तब अपने पसंदीदा प्रत्याशी के रूप में हम एक गुट जैसी स्थिति में होते हैं।
कहने का मतलब है जिस व्यक्ति को हम बोट दे रहे होते हैं वह हमारा ख़ेमा होता है। और जिस खेमें को केवल एक बोट, जी हां केवल एक बोट अधिक मिल जाता है उसी को चयनित घोषित कर दिया जाता है।
इस प्रकार भले वह नेता उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिये अधिकृत हो जाता है लेकिन उस क्षेत्र की सभी जनता का बोट केवल उसे ही नहीं मिलता है अपितु कुछ प्रतिशत बोट ही उसे मिलता है,जो कि सभी दावेदारों से कम से कम एक बोट, जी हां केवल एक बोट ही अधिक हो तो वह निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।
पूरे भारत में कोई भी कहीं से चुनाव लड़ सकता है लेकिन बोट नहीं डाल सकता है मान लीजिए आपकी विधानसभा में कोई व्यक्ति ऐसा है जिसका हरियाणा के किसी जगह की मतदाता सूची या बोटर लिस्ट में नाम है तब भी वह आपकी विधानसभा से चुनाव तो लड़ सकता है लेकिन उसे बोट देने का अधिकार वहीं है जहां की मतदाता सूची में उसका नाम है।
यदि चुनाव में दावेदारी कर रहे प्रत्याशियों को आप बोट ना भी करें तो वह अपने बोट से भी चुनाव जीत सकता है, आप कहेंगे कैसे ! तो मान लीजिए आपके क्षेत्र से कुल बीस प्रत्याशी खड़े हैं लेकिन उस क्षेत्र में एक प्रत्याशी को छोड़कर बाकी प्रत्याशी आपके विधानसभा क्षेत्र के मतदाता नहीं हैं और वहां किसी आम मतदाता ने भी बोट नहीं दिया फिर भी वह प्रत्याशी जिसका नाम आपके विधानसभा क्षेत्र में जिस जगह की मतदाता सूची पर होगा वहां से अपना बोट खुद को देकर अपने पक्ष में एक बोट की बढ़त बना लेगा और इस प्रकार भी जबकि किसी और ने बोट ही नहीं दिया ऐसी स्थिति में भी वह प्रत्याशी अपने ही बोट से एक बोट से जीता हुआ घोषित कर दिया जाएगा।
कहने का मतलब एक दम साफ़ है आप बोट दे या न दें कोई न कोई अवश्य ही चयनित घोषित किया जाएगा।
दरअसल आप केवल इसलिए बोट करते हैं क्योंकि आप जिसे चाहते उसे अन्य प्रत्याशी से जिसे भी आप में से ही कोई मतदाता बोट दे रहा है से कम से कम एक बोट अधिक मिल जाए।
अब इसका अर्थ भी समझ लीजिए चुनाव में दावेदारी कर रहे लोग आपके पास आते जरूर हैं, लेकिन वास्तव में आप ही आपस में एक मतदाता के रूप में दूसरे मतदाता से पसंद और वैचारिक रूप से संघर्ष करते हैं और आप मतदाताओं में से जिसकी ओर एक व्यक्ति अर्थात मतदाता अधिक होता है उसके ही प्रत्याशी को चयनित या निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।
यदि केवल एक ही व्यक्ति दावेदारी कर रहा हो तो उसे आपके बोट की कोई जरूरत नहीं है उसे निर्विरोध प्रत्याशी मानकर निर्वाचित घोषित कर दिया जाएगा।
यदि चुनाव मैदान में दावेदारी कर रहे प्रत्याशियों की संख्या एक से अधिक और अधिकतम संख्या कितनी ही क्यों न हो यदि उन्हें एक भी बोट न पड़े यानी की शून्य बोट पड़े या फिर बराबर बोट पड़े तो भी आपसे में पासां डालकर यानी अंग्रेजी में टाॅस के जरिए जिसका भी नाम आ जाएगा उसी को विजेता मान लिया जाएगा।
कुल मिलाकर यह एक ऐसी लड़ाई है जो बिना हथियार और एक दूसरे को चोट पहुंचाए वगैर, दावेदारों के द्वारा जनता को आपस में लड़ाकर जीती जाती है यहां हर कोई जिसका नाम मतदाता सूची प्रसंगवश कहें तो लड़ाकू सूची में है एक लड़ाके की भूमिका में ही होता है ।
दावेदार मतदाताओं से अपनी और से लड़ने की अपील करता है और मतदाता सूची में शामिल लोग चुपचाप मन ही मन अपने दावेदार को सरदार बनाने के लिए मोर्चा संभाल लेते हैं ।
हमारे एक एक बोट से प्रत्याशी के मतों की संख्या बढ़ती है इसका मतलब है प्रत्याशियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। कभी आपका दावेदार एक बोट से तो कभी आपके बड़े भाई का दावेदार एक बोट से तो कभी आपके मझिले भाई का दावेदार एक बोट से तो कभी आपके छोटे भाई का दावेदार या प्रत्याशी एक बोट से आगे होता है तो कभी एक बोट से पीछे होता है अंत में जिस दावेदार की ओर एक बोट या अधिकतम कितना भी ज्यादा हो वही प्रत्याशी निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।
लेकिन दिखाया सब कुछ उल्टे चश्मे से जाता है, हमें तो यही बताया जाता है कि आपके क्षेत्र में इतने कैंडिडेट आपस में चुनाव लड़ रहे हैं अरे भाई सच्चाई तो ये है की वो स्वयं को विजयी घोषित करवाने के लिए आपको आपस में लड़ा रहे हैं।
इसलिए सावधान रहें , सजग रहें ।
आपके घर में निवाला न हो तो आपका भाई ही मुह फेर लेता है तो क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वह किसी और जाति का है ? " नही , न " जरा सोचिए जिस मां ने आपको जन्म दिया उसी ने आपके भाई को भी, फिर भी ये दावेदार आपको जाति के नाम पर , पांति के नाम पर, टोले, मोहल्ले, इस पार और उस पार के नाम पर, और तो और औरत और मर्द के नाम पर और भी न जाने किस-किस के बहाने से आपको उकसाएंगे और जीतने के बाद कभी घूम कर आपकी ओर कभी नहीं देखेंगे इतना ही नहीं हम आप तो कभी इनकी चौखट पर जा ही नहीं पाएंगे अगर कभी कुछ पैसों का इंतजाम कर के चले भी गए तो दोबारा से कान पकड़ लेंगे, लेकिन खुद को इनके खास कहलवाने वाले भी काम निकलने के बाद दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिये जाते हैं।
ये दावेदार अभी खुद को विजयी बनवाने के लिए घर - घर जाएंगे आपको लालच पर लालच देंगे आपके मन में जाति, पांति और हर उस दु:खती नस पर हाथ रखेंगे जो आपके और आपके बगल में खड़े व्यक्ति के बीच मन मुटाव का कारण है, के नाम पर उकसाएंगे और आपस लड़ाकर रफूचक्कर हो जाएंगे बूथ में आप का मनमुटाव बाहर आएगा आप आपसे में ही लड़ेंगे और ये जीत के दावेदार बख्तरबंद गाड़ी में बैठकर मोबाइल से यूट्यूब पर आपका का बहता हुआ खून देखकर मजे लेंगे चुनाव निकलने के बाद ये दावेदार आपस में ही बैठकर नास्ता करेंगे और अपने बेटे की सादी में एक दूसरे को बुलाकर फूले नहीं समाएंगे और आप इनकी जीत हार के फेर में अपनों से ही सदा सदा के लिए मुंह उल्टा कर लेंगे।
अब सवाल खड़ा होता है, कि फिर क्या किया जाए ? तो आइये पहले पूरा सिस्टम समझ लेते हैं हमारे देश में संविधान में दी गई व्यवस्था के मुताबिक कोई भी चुनाव में दावेदार बन सकता है और मिलकर सरकार बना सकता है लेकिन संविधान में इस विषय पर एक बहुत विवादास्पद विरोधाभास है।
संवैधानिक प्रावधानों में एक तरफ तो मतदाताओं या जनता से अच्छा नेता चुनने की व्यवस्था की गई है दूसरी ओर राजनीतिक दल की व्यवस्था कर दी गई है ऐसे में सवाल यह है कि नेता चुन भी लिया गया तो वह अकेले क्या करेगा ? तो उत्तर है अकेले कुछ भी नहीं कर पाएगा ।
और यदि राजनैतिक दलों की बात करें तो यह एक ऐसा संगठन होता है जो जनता के बीच अपने वादे , नीति और रीति को लेकर जनता के बीच प्रचार प्रसार से अपने एक वैचारिक जनाधार का निर्माण करता है और उन्हीं के बीच से कार्यकर्ताओं को नियुक्त करके कई जगह से अपने कैंडीडेट प्रत्याशी के रूप में उतार देता है और इन दावेदारों पर अपना सम्पूर्ण कानूनी नियंत्रण रखता है, ये कैंडीडेट अपने मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकते हैं, इन्हें पार्टी के मुखिया के आदेश और नीतिगत निर्देशों के अनुसार चलना होता है ऐसा ना करने पर वह राजनैतिक दल इन्हें अपने दल से निकाल सकता है जिससे इनकी निर्वाचन सदस्यता स्वत: समाप्त हो जाती है और उस क्षेत्र पर छै महीने के अंतराल में फिर से चुनाव कराए जाते हैं ऐसा ही जब वह स्वयं इस्तीफा दे दे तब भी होता है इस प्रकार चुनाव में ऐसा दावेदार राजनैतिक संगठनों का एक पुतला बनाकर रह जाता है ।
अब समझिये चुनाव में तीन तरह के लोग मैदान में दावेदारी कर रहे होते हैं पहला जो स्वयं के बल पर दावेदार होता है, दूसरा जो कम प्रचलित राजनीतिक दल से होता है, तीसरा जो व्यापक प्रभाव वाले राजनीतिक दल से होता है ।
इसलिए जनता के पास मोटे तौर पर दो किस्म के विकल्प होते हैं, कि वह किसी व्यक्ति को बोट करे या किसी राजनीतिक दल को ।
वस्तुत: यह संविधान जो हम अपनी इच्छा से नेता चुनने का अधिकार देता है वहीं राजनैतिक दलों की व्यवस्था बनाकर वह हमें ऐसा न करने के लिये मजबूर कर देता है।
क्योंकि व्यक्तिगत दावेदार कितना ही समर्पित और इमानदार भले हो उसे विजय तो दी जा सकती है लेकिन उसके पास न तो सरकार का और न ही विपक्ष का दायित्व होता है ऐसे में वह कितना ही दमदार क्यों न हो उसकी भूमिका पर प्रश्न चिन्ह लग ही जाएगा । यही हाल कम प्रभाव वाले राजनीतिक दलों का है ।
जो कि संविधान निर्माताओं द्वारा बहुत बड़ी चूक की ओर इंगित करता है जिसकी वजह से अन्य देशों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पाए जाने वाले चिरपरिचित भ्रष्टाचार से कहीं अधिक प्रकार के बहुविध भ्रष्टाचार को भारत में आसानी चिन्हित किया जा सकता है जिनमें निजी स्वार्थ की खातिर दलबदल और खरीद फरोख्त अब आम बात हो चुकी है। चूंकि अन्य देशों में केवल राजनीतिक दल ही होते हैं और कहीं कहीं पर तो केवल दो राजनैतिक दल ही होते हैं इस प्रकार की स्थितियां देखने को न के बराबर ही भर्ती है।
लेकिन भारत में न तो राजनैतिक दलों की कोई सीमा है और न ही व्यक्तिगत दावेदारों की सब कुछ असीमित है।
ऐसे में जनता यह अच्छी तरह समझ लें कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था या चुनाव की व्यवस्था का दोहरा चरित्र (व्यक्तिगत दावेदार और नीतिगत दावेदार अर्थात राजनैतिक दल का प्रतिनिधि या पुतला) होने के बावजूद भी यह नीतिगत रूप से अर्थात राजनैतिक दल की ओर अधिक झुकाव लिए हुए है यानी की कहने के लिए कोई भी चुनाव मैदान में उतर सकता है और कोई भी जीत सकता है लेकिन असली खेला तो राजनैतिक दल ही करते हैं।
और भी सरल भाषा में कहें तो कोई दावेदार आपसे कुछ भी कहे कोई भी लालच दे वह आपके लिए निजी तौर पर कुछ भी नहीं कर सकता है, चयनित प्रत्याशी केवल और केवल दो प्रक्रिया का अंग होकर रह जाता है जिसमे एक, पक्ष और दूसरा विपक्ष होता है उसे इन्हीं दो सीमाओं में से किसी एक में रह कर कार्य करना होता है।
ऐसे आप खुद से सोचिए कि आप एक मजबूत पक्ष या सरकार चाहते हैं या फिर एक मजबूत विपक्ष जो सरकार पर तगड़ा अंकुश रख सके क्योंकि इससे इतर आपने सोच रखा है तो इस लेख को पढ़ने के पश्चात यह अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं कि आपने अपना बोट किसी बहकावे में दिया है या राजनैतिक परिवर्तन की दिशा में एक नींव का पत्थर स्थापित किया है।
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